श्वेतप्रदर का अचूक उपाय है छापरी ।

 श्वेतप्रदर का अचूक उपाय है छापरी ।

राजस्थान प्रदेश की जलवायु अपनी विशेष पहचान रखती हैं

श्री भगवानदास तोदी महाविद्यालय के वनस्पति विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ जितेंद्र कांटिया ने बताया कि इस प्रदेश की विशिष्ट जलवायु में विभिन्न आयुर्वेदिक औषधि वाले पौधे जैसे शंखपुष्पी, भृंगराज, गूगल, ब्राह्मी आदि सामान्य रूप से पाए जाते हैं इनके अलावा छापरी जिसका वैज्ञानिक नाम कोल्डेनिया प्रोकम्बेंस, है। यह एक वार्षिक शाकीय प्रवृत्ति वाला औषधीय पौधा है जिसका पारंपरिक रूप से विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए




उपयोग किया जाता है।  डॉ कांटिया के अनुसार भारतीय आयुर्वेद में विभिन्न रोगों जैसे बुखार, बवासीर , बिच्छू के डंक आदि में इसका उपयोग किया जाता हैं। इसे संस्कृत भाषा में त्रिपक्षी तथा हिंदी में त्रिपुंगकी नाम से जाना जाता है। यह सामान्यतः नम तथा कृषि भूमि वाले क्षेत्रों में उगता है। मुख्य रूप से नाड़ी वैद्य व आयुर्वेदाचार्यो ने इस पौधे का स्थानीय स्तर पर दवा के रूप का अत्यधिक दोहन किया। जिसके कारण वर्तमान में यह विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। यह पौधा अपने सूजनरोधी, एंटीऑक्सीडेंट और रोगाणुरोधी गुणों के लिए जाना जाता है।  इसमें एंटीऑक्सिडेंट, एंटीमाइक्रोबायल, एंटी-डायबिटिक, एंटी-इंफ्लेमेटरी, एंटी-आर्थराइटिक, एनाल्जेसिक, एंटी-कैंसर, एंटी-हाइपरलिपिडेमिक, और हेपेटोप्रोटेक्टिव आदि प्रभाविक गुण होने के कारण यह विभिन्न रोगों व दर्द में लाभदायक हैं। इस पौधे का उपयोग अत्यधिक मासिक धर्म रक्तस्राव और ल्यूकोरिया (योनि स्राव) के इलाज के लिए किया जाता है। इसके अलावा आमवाती सूजन, फोड़े, दर्द, अपरिपक्व फोड़े, घाव और सांप के काटने के इलाज आदि के लिए स्वदेशी चिकित्सा प्रणाली में लाभदायक माना जाता है। इसमें टेरपेन, स्टेरोल, कूमेस्टन, नाइट्राइल/सायनो ग्लूकोसाइड, फैटी एसिड और अन्य यौगिक पाए जाते हैं। इस आधार पर एथनोबोटनी, फाइटोकेमिस्ट्री, फार्माकोलॉजी और विष विज्ञान जैसी अनेक विज्ञान की शाखाओं में लाभदायक हैं।  

भारतीय चिकित्सा पद्धति में यदि इस पौधे का निरंतर उपयोग करना है तो इसे विलुप्त होने से बचाना अति आवश्यक है।

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