समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिलना भारत की सामाजिक - सांस्कृतिक संप्रभुता एकता व अखंडता का विनाश ही तो है -
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिलना भारत की सामाजिक - सांस्कृतिक संप्रभुता
एकता व अखंडता का विनाश ही तो है -
सम्प्रति समलैंगिक विवाह के समर्थन में पूरे देश भर में एक नई परन्तु गंदी घिनौनी बहस छिड़ी हुई है। विरोध के स्वर भी अति मुखर हैं।
देश और दुनियां के आस्थावान सनातन प्रेमी भारतवर्ष की सामाजिक - सांस्कृतिक अक्षुण्ण परम्पराओं को टूटने से बचाने के लिए भारत सरकार के प्रत्येक कदम को संरक्षकीय याचना की दृष्टि से एकटक निहार रहे हैं।
वहीं आजकल सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने की मांग से जुड़ी सभी याचिकाओं पर गम्भीर सुनवाई भी चल रही है।
भारतवर्ष में विवाह एक पवित्र सामाजिक संस्कार है, जो पुराकाल से केवल नर और नारी के मध्य ही संभव हैं। विवाह स्त्री और पुरुष का मौलिक अधिकार है -
*विवाह: स्त्रीपुरुषद्वयायत्त:*
धर्म अर्थ काम इन त्रिवर्ग की सिद्धि भी पति पत्नी से ही सम्भव है।-
*भार्या त्रिवर्गकरणं शुभशीलयुक्ता ...*
*तन्निघ्नतामुपगता: सुतशीलधर्म:।।*
इन्हीं उदात्त भावों के मूल का रहस्य नर व नारी का पति पत्नी के पारिवारिक रूप में साथ निभाते हुए समवेत भाव से धार्मिक कृत्यों में सहभागिता करना है।
साथ ही सृजनात्मक सृष्टि कार्य को आगे बढ़ाने हेतु संतानों की उत्पत्ति करना भी है। सभी धर्मग्रंथों में वेदों में भी यही लिखा है। गृहस्थ धर्म का मूल आधार ही पति-पत्नी है ऐसा महर्षि कश्यप कहते हैं-
*अथात: सम्प्रवक्ष्यामि गृहस्थाश्रममुत्तमम्।*
*य आधारोऽन्याश्रमाणां भूतानां प्रणिनां तथा।।*
महर्षि वशिष्ठ ने और भी कहा है-
*कश्चिद् गृहाश्रमो न परोऽस्ति धर्म:*
*सोऽपि स्थित: सुगुणवृत्तयुताङ्गनासु।।*
हिंदू धर्म में 8 प्रकार के विवाह कहे गए हैं, जिसमें स्त्री पत्नी होती है और पुरुष पति। किसी भी धर्म ग्रंथ ने समलैंगिकों को पति - पत्नी नहीं माना गया है। सभी प्रकार के विवाहों में स्त्री पुरुष की प्रधानता रही है। महर्षि मनु ने कहा है -
*चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्।*
*अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत।।*
यथा नाम तथा गुण से आठ प्रकार के विवाह भेद-
*ब्राह्मो दैवस्तथा चाऽऽर्ष: प्राजापत्यस्तथाऽऽसुर:।*
*गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधम:।।*
समलैंगिक विवाह सनातनी हिन्दू धर्म में पाप की अधम श्रेणी से भी निम्नतम है। सनातन संस्कृति में यह दोष पूर्ण माना गया है। वहीं यदि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिलती है तो ऐसी परम्पराएं धर्म और संस्कृति का विनाश ही करेंगी।
यदि सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिक विवाह पर सहमति प्रदान करता है तो ऐसा निर्णय परस्पर विरोधी अपसंस्कृति को ही जन्म देगा।
समृद्ध परम्पराओं, जीव जंतुओं और पशु पक्षियों से हमारे सुप्रीम निर्णायकों को संदेश लेना चाहिए। कभी भी ऐसे अशोभनीय कुकृत्यों को कानूनी मान्यता नहीं देनी चाहिए।
पं. कौशल दत्त शर्मा
नीमकाथाना राजस्थान
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें