एकादशी अष्टमी आदि तिथियों में वेधनिर्णय* :-
*एकादशी अष्टमी आदि तिथियों में वेधनिर्णय* :-
*श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्*
वेदार्थ को स्मृतिग्रन्थ स्पष्ट करते हैं। हम सब वेदानुगामी सनातनी वैष्णव और स्मार्त रूप में तिथ्यादि व्रतों को करते रहे हैं। प्राय: शास्त्रकारों ने स्मार्त-गृहस्थियों को पूर्ववर्ती तिथि में और वैष्णव वानप्रस्थी साधु संन्यासियों को परवर्ती तिथियों में अष्टमी एकादशी आदि व्रत करना कहा है।
१. *स्मार्तानां गृहिणां पूर्वोपोष्या।*
२. *यतिभि: निष्कामिगृहिभि: वनस्थै: विधवाभि: वैष्णवैश्च परैवोपोष्या।*
वैष्णव-स्मार्त भेद...
*यस्य दीक्षास्ति वैष्णवीत्यादि लक्षणयुक्ता वैष्णवा: तद्भिन्ना: स्मार्ता:।*
*तथापि स्वपारम्पर्यप्रसिद्धमेव वैष्णवत्वं स्मार्तत्वं च वृद्धा मन्यन्ते।।*
वेद पुराण धर्मशास्त्र स्मृति को मानने वाले, गायत्री सहित पंचदेवोपासक सभी गृहस्थी प्राय: स्मार्त माने जाते हैं।
और किसी वैष्णव सम्प्रदाय के गुरु से दीक्षित और वैष्णव तिलकादि चिह्नों को धारण वाले भक्त जन वैष्णव कहे गये हैं।
*स्पष्ट है जब वैष्णव और स्मार्त दो पक्ष हैं तो तिथि वेध भी दो प्रकार के हैं।*
१. अरुणोदय वेध-
*सूर्योदयात् प्राक् चतुर्घटिकात्मकोऽरुणोदय:।*
*घटीचतुष्कं ह्यरुणोदयाभिद:*
सूर्योदय से पूर्व चार घटी का काल अरुणोदय काल कहलाता है। अरुणोदय में तिथि का वेध अर्थात् ५६ घटी के बाद किसी भी तिथि का पलादिमात्र भी प्रवेश हो तो अरुणोदय कालीन वेध कहलाता है जो वैष्णवों के लिए है।
२. सूर्योदय वेध-
*सूर्योदयस्तु स्पष्ट:।*
अर्थात् सूर्योदय में तिथि का वेध। अर्थात् ६० घटीरूप सूर्योदय के बाद पलमात्र भी किसी तिथि का प्रवेश हो तो सूर्योदय वेध होता है जो स्मार्तों के लिए है।
वैसे भी ५५ घटी बाद आरम्भ होने वाले काल को *उषाकाल* ५६ घटी के बाद *अरुणोदय काल* ५७ घटी के बाद *प्रात:काल* ५८ घटी से आगे वाले काल को सूर्योदय काल कहा जाता है।
*प्रातर्विमृष्ट: समयो महर्षिभि:*
उदाहरणार्थ- सप्तमी या दशमी सूर्योदय से तीन से चार घटी पूर्व समाप्त होकर अष्टमी एकादशी आरंभ हो जाए तो अरुणोदय वेध कहा जाएगा।
ऐसे ही ५८ से ६० घटी तक अष्टमी एकादशी आ रही हो तो सूर्योदय वेध कहलाता है। इसी को शास्त्रज्ञों ने *अतिवेध* कहा है। सूर्य प्रभा दर्शन से अर्द्ध सूर्यदर्शन तक का काल *महावेध* कहलाता है। सूर्योदय हो जाने पर *वेध* होता है। इनमें से उत्तरोत्तर वेध अतिशय अनिष्टकारक होते हैं।
*तिथि के भी दो प्रकार हैं-*
*१. विद्धातिथि-*
अरुणोदय वेधवती विद्धा।
अर्थात् अरुणोदय में तिथि का मान ५६ घटी से अधिक हो तो वेध वाली तिथि विद्धा कहलाती है। सामान्यतः वैष्णव अरुणोदय कालिक सप्तमी दशमी विद्धा तिथि में अष्टमी एकादशी का व्रत नहीं करते हैं ये लोग अरुणोदय वेध रहित शुद्धा तिथि को ही व्रत करते हैं। एकादशी आदि विद्धा हों तो द्वादशी में वैष्णव व्रत करते हैं।
*२. शुद्धा-*
अरुणोदय वेध रहिता तिथि शुद्धा कहलाती है। अर्थात् अरुणोदय के वेध से रहित तिथि शुद्धा कहलाती है।
*इस प्रकार अष्टमी एकादशी आदि तिथियां जो सूर्योदय से चार घटी पूर्व में हो वही शुद्धा तिथि कही जाती हैं। अन्य विद्धा कही जाती हैं।*
२८ घटी तक रात्रिमान हो तो अरुणोदय काल में साढ़े तीन घटी का वेध मानना चाहिए। और २८ या २८ से अधिक रात्रिमान हो तो अरुणोदय काल में चार घटी का वेध माना जाता है।
इस प्रकार तिथियों का वेध स्थानीय पंचांगों के अनुसार समुचित निर्णय करके ही करना चाहिए। अतः वेध तो दो मुहूर्त अर्थात् चार घटी का ही शास्त्रीय कहा है।...
*हेमाद्रिमदनरत्नादौ तु द्वि मुहूर्तोऽप्युक्त:।*
वैष्णव और स्मार्त दोनों मत से *शुद्धा विद्धा तिथियों के चार-चार या और भी अधिक भेद* पूर्वाचार्यों ने कहे हैं।
*वैष्णवव्रतनिर्णये अरुणोदय वेधवती शुद्धा सा चतुर्विधा*-
इसको एकादशी के उदाहरण से समझना चाहिए। क्योंकि वैष्णव द्वादशी के अनुगामी हैं।
*वैष्णवैर्द्वादश्येवोपोष्या।*
*बहुवाक्यविरोधेन ब्राह्मणेषु ववादिषु।*
*एकादशीं परित्यज्य द्वादशीं समुपोषयेत्।।*
चार पक्ष...
१. *एकादशी मात्राधिक्यवती*- एकादशी अधिक (तिथिवृद्धि)हो तो पहली एकादशी स्मार्तों की दूसरी एकादशी वैष्णवों की।
२. *द्वादशीमात्राधिक्यवती*- द्वादशी अधिक (तिथिवृद्धि) हो तो शुद्ध एकादशी स्मार्तों की और पहली द्वादशी में वैष्णव व्रत करें।
३. *उभयाधिक्यवती*- दोनों अधिक हों तो कल्पित उदाहरण समझें-
क्रमशः दशमी ५५ एकादशी ६० एकादशी ०१ द्वादशी ०५ तो दोनों को दूसरी वृद्धिएकादशी के दिन व्रत करना चाहिए।
४. *अनुभयाधिक्यवती*- अन्+उभय दोनों अधिक ना हों इसे भी उदाहरण सहित समझना होगा।
दशमी ५५ एकादशी ५७ द्वादशी ५८ हो तो दोनों को शुद्ध एकादशी में ही व्रत करना चाहिए।
*अत्राधिक्यं सूर्योदयोत्तर सत्त्वम्।*
*आधिक्य* पद का अर्थ सूर्योदय के अनन्तर तिथि का होना लिया है। अर्थात् तिथिमान वृद्धि से है।
व्रत निर्णय में कुछ विद्वान् स्मार्त और वैष्णवों के १८-१८ प्रकार तक के तिथिवेध कहे हैं।...
*वैष्णवाष्टादशभेदानां स्मार्ताष्टादशभेदानां च निर्णय: ...*
इनसे विद्वानों और ब्राह्मणों में संदेह ही पैदा होगा।
धर्मशास्त्रीय और भी वेध हैं जिनकी शास्त्रों में सर्वत्र चर्चा है। महर्षि नारद के मतानुसार...
१. *कपाल वेध (मध्यरात्रि ४५ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
२. *छाया वेध (५२ घटी के अनन्तर दशमी होने पर*)
३. *ग्रस्त वेध (५३ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
४. *सम्पूर्ण वेध (५४ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
५. *अति वेध (५५ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
६. *महा वेध (५६ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
७. *प्रलय वेध (५७ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
८. *महाप्रलय वेध (५८ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
९. *घोर वेध ( ५९ घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
१०. *राक्षस वेध ( ६० घटी के अनन्तर दशमी होने पर)*
परन्तु इनकी मान्यता अधिक नहीं है।
अधिकतम आचार्यों ने ५६ घटी का अरुणोदय कालिक वेध ही माना है।
*वैष्णवों के निम्बार्कादि सम्प्रदायों में कपालवेध (स्पर्श या गन्धिनी) की ही मान्यता है।* ...
*अर्धरात्रोत्तरं दशमीसत्त्वे कपालवेध:।*
अर्थात् अर्द्धरात्रि के पश्चात् दशमी हो तो कपालवेध के कारण अग्रिम तिथि एकादशी विद्धा मानी जाएगी। विशेष कर ऐसी एकादशी व्रतोपवास हेतु निम्बार्क सम्प्रदाय आदि के लिए त्याज्य होने से अग्रिम द्वादशी में ही व्रत विहित है। निम्बार्कानुयायी आचार्य शुद्धा एकादशी में जय विजयादि आठ महाद्वादशियों का स्पर्श विशेष मानते हुए एकादशी व्रत को त्याग कर महाद्वादशी व्रत का आदेश करते हैं। वैसे कपालवेध का तात्पर्य मध्यरात्रि (४५ घटी) के पूर्वार्ध और उत्तरार्द्ध से है।
निम्बार्क सम्प्रदाय के व्रत एवं महोत्सव कपालवेध के मतानुसार ही आयोजित किए जाते हैं। निम्बार्क सम्प्रदाय के श्री सुदर्शन चक्रावतार श्री भगवदम्बिकाचार्य जी ने भगवत् - भागवत जयन्तियों में तिथियों का उदयकाल अर्द्धरात्रि ४५ घटी पल पर ही माना है। कपाल वेध को स्पर्श वेध या गन्धिनी वेध भी कहा जाता है।
विशेष -
*मेरी शोधदृष्टि में कल्पारम्भ सृष्ट्यारम्भ महायुगारम्भ और कलियुगारम्भ सभी ग्रह एकत्र सिद्ध होते हैं और उसी दिन से तिथियों का उदयकाल भी सिद्ध होता है। इसी आधार पर तिथियों का उदयकाल कल्पादि आरम्भ दिन से मध्यरात्रि काल से (कपालवेध) या सूर्योदय कालिक उदयकाल से माना जाता है।*
*ज्योतिषीय सिद्धान्तों में प्राचीन सूर्यसिद्धान्त के अनुसार कलियुग का आरम्भ गुरुवार की मध्यरात्रि ( कपालवेध ) से माना गया है जबकि आर्यभट्ट प्रथम आदि ने कलियुग का आरम्भ शुक्रवार के सूर्योदय से माना है।*
*निम्बार्कार्चार्यों ने सूर्यसिद्धान्त के मध्यरात्रि (कपालवेध) सिद्धान्त को आधार मानकर ही एकादशी आदि तिथियों का उदयकाल अर्द्धरात्रि घटीपल माना है।*
अन्य मान्य आचार्यों द्वारा वेध के चार प्रकार बताए गए हैं...
१. *कपाल वेध*- (४५ घटी मध्यरात्रि के बाद तक दशमी का स्पर्श, स्पर्श या गन्धिनी)
२. *संग या संगिनी वेध*- दशमी के घटी पल ५० घटी के आगे प्रवेश करें तो संगिनी वेध कहलाता है।
३. *शल्य या शल्या वेध*- दशमी के घटी पल ५५ घटी को स्पर्श कर लें तो शल्यवेध कहलाता है।
४. *वेध या विद्धा*- दशमी के घटी पल ६० घटी के बाद अग्रिम दिन भी स्पर्श करें तो तिथि वेध या विद्धा कहलाती है।
विशेष स्थिति में प्रात: एकादशी हो द्वादशी का क्षय होकर त्रयोदशी का स्पर्श हो तो अगले दिन सुबह त्रयोदशी को पारणा का विधान कहा है। यहां द्वादशी त्रिस्पर्शा होने से इसे बहुत ही शुभ माना है। इसे एकादशी त्रिस्पृशा नहीं कह सकते। व्रत एकादशी का ही होगा।
कतिपय आचार्य एकादशी क्षय हो तो दशमी विद्धा एकादशी व्रत करने का दोष नहीं कहते हैं। परन्तु अगले दिन लेशमात्र भी एकादशी हो तो दशमी विद्धा एकादशी व्रत नहीं होगा।
अतः शास्त्र के आदेश की पालना भी उत्कर्ष कारक है।
*शास्त्रपूर्वके प्रयोगे अभ्युदयम्।*
कहा है...
*श्रुतिर्विभिन्ना: स्मृतयो विभिन्ना:* आदि वचनों से सार्वदेशिक सार्वभौमिक सर्वमान्य धर्मशास्त्र सम्मत सब के लिए एक ही निर्णय कदापि सम्भव नहीं है। अतः कुल परम्परानुगत व्यवस्था ही श्रेयस्कर है।
अन्तिम निर्णय विद्वज्जनों से परामर्श लेकर ही करें। अधिक विसंगति में विद्वज्जनों की धर्मसभा का निर्णय ही शिरोधार्य होना चाहिए।

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