जयपुर में गोपाष्टमी पर गाय बछड़ों ग्वालो का पूजन सम्मान होता था*

 *जयपुर में गोपाष्टमी पर गाय बछड़ों ग्वालो का पूजन सम्मान होता था*


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जयपुर में राजाओं महाराजाओं के समय से ही गोपाष्टमी के पर्व पर गायों और बछड़े के साथ गोधन को घरों से जंगल से  चराकर लाने वाले ग्वालो का पूजन किया जाता था । भगवान के चार में से तीन धार्मिक संप्रदायों के अनेक मंदिरों की वजह से जयपुर को गुप्त वृंदावन को माना जाता रहा है । कृष्ण जन्माष्टमी और गोपाल अष्टमी पर्व पर राजा के साथ आम प्रजा के जुड़ने से यह जयपुर साक्षात में वृंदावन ही बन जाता था। 

गोपाष्टमी के दिन हवेली के चौक और बाड़े में रहने वाली गायों, बछड़े के साथ उनके खूंटों और ग्वालो का पूजन होता था।  गोपाष्टमी के दिन भक्त गोविंद देव जी, गोपीनाथ जी, गोवर्धन नाथ जी आदि कृष्ण मंदिरों में बंधी गायों और बछड़ों का दर्शन करने के बाद भगवान का दर्शन करते थे ।उसे जमाने में जयपुर के मंदिरों की अलग ही गौशाला होती थी। नगर के गौ भक्त नागरिक ढोल मंजीरा को बजानें , हरि कीर्तन करते हुए मंदिरों और गौशालाओं में जाते थे । बालानंद मठ से जुड़े देवेंद्र भगत के मुताबिक जनानी डंयोढीं के बाद शार्दुल सिंह की नाल में रियासत का ग्वालेरा था। 

मंदिरों और घरों की गायों को रोजाना चरानें के लिए जंगल में ले जाने वाले ग्वालो का मंदिरों और गौशालाओं में सम्मान किया जाता था । उन्हें वस्त्र आदि भेंट करने के साथ गोधृत से बना भोजन की रसोई परोसी जाती थी। रियासत काल के ग्वालेरा की गायों का दूध मंदिरों में भोग के लिए भेजा जाता था । और बछड़ों को भरपेट दूध पिलाया जाता था। 

गलता तीर्थ एवं बालानंद मठ में गायों का पूजन होने के बाद वालों का सम्मान किया जाता था । गोपालको और ग्वालो को गोधृत से बने पकवानों से बनी रसोई परोसी जाती थी । बालानंद जी मठ से जुड़े देवेंद्र भगत के मुताबिक रियासत के प्रत्येक गांव में गायों को चराने के लिए अलग ही गोचर भूमि रखने की व्यवस्था थी। 

जयपुर की पुरानी बस्ती के नरसिंह मंदिर के बंसी वाला गायों को चराने के लिए बांसुरी बजाते हुए चलते, तब गायें उनके पीछे दौड़ती हुई चलती वह नाहरगढ़ की तलहटी के जंगल में गायों को चराने के लिए ले जाते थे । मंदिरों का इतिहास लिख रहे डॉक्टर सुभाष शर्मा ने बताया कि सवाई राम सिंह और माधो सिंह के समय ग्वालेरा के लिए गोकुल , वृंदावन और बृज भूमि की गायें के मंगवाई जाती थी। 

ग्वालेरा और मंदिरों में दर्शनीय गायें भी होती थी । सवाई माधोसिंह गौं और गंगा मैया के भक्त थे। सुबह उठते ही तब पलंग के पास खड़ी बछड़ी का दर्शन करते थे।

मीरां मार्ग शिव मंदिर के महल पंडित केदारनाथ दाधिच ने बताया कि गाय के गोबर के सुखे कंडों में पकाई हुई चूरमा दाल बाटी की रसोई में गाय का घी ही प्रयोग में लेने से ही वह नवग्रह प्रसाद माना जाता था ।

रिपोर्टर :: वॉइस ऑफ़ मीडिया :::  सीकर नीमकाथाना ,राजस्थान शिंभू सिंह शेखावत

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