नहीं समझता कोई मुझको कविता

 नहीं समझता कोई मुझको


          कविता



अपनी-अपनी धुन में रहती,

अपनी कहे कहानी।

कहां किसी की सुनने वाली,

अपने मन की रानी।।

अपने चारो ओर बिछाया,

स्वयं बनाया जाल।

खुद भी कहां समझ पाती है,

अपने दिल का हाल।।

समझाने की कोशिश सारी,

ऊपर से उड़ जाती।

नहीं समझता कोई मुझको,

गुस्से से घुर्राती।।

मैं क्या हूं नादान, कोई क्यों,

मुझको सीख सिखाए।

टोका, टोकी,रोज-रोज की,

नहीं जरा भी भाए।।

अच्छा है आगे बढ़ना, पर

कुल का नाम बढ़ाओ।

संस्कारों में सीखो जीना,

रीति, रिवाज निभाओ।।

कितना भी ऊंचा पद पालो,

है परिवार जरूरी।

संभलो स्वयं, संभालो निज घर,

दिल में रखो न दूरी।।


कवि हरीश शर्मा

लक्ष्मणगढ़ - (सीकर)

राजस्थान

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